Sunday, August 07, 2011

दो बजिया बैराग्य - एक और भाग

अगर गौर से सोचें तो सुबह उठना हर व्यक्ति के लिए अपने आप में एक इतिहास की तरह ही होता है, और इतिहास अच्छा, बुरा अथवा तटस्थ, कुछ भी हो सकता है और एक साथ सब कुछ भी.. जब तक घर में रहा तब तक मैं भले ही कितनी ही सुबह उठ जाऊं, पापा या मम्मी या फिर दोनों को ही जगा हुआ पाया हूँ.. पता नहीं माता-पिता इतनी जल्दी कैसे उठ जाया करते हैं?

बहुत बचपन की एक याद बाकि है अभी भी, हर सुबह पापा गोद में उठा कर सारे घर में घूमते थे.. कुछ वैसे ही जैसे अपने पिछले पटना प्रवास के दौरान केसू को घुमते देखा था उन्हें(इस बाबत सीन तीन पढ़ें इस पोस्ट का).. और मैं उनके कंधे पर सोया हुआ रहता था, बीच-बीच में आँखें मीचते हुए..

कुछ साल बाद की भी बात याद है.. हम तीनों भाई-बहन का एक ही कमरा हुआ करता था, जिसमें दो बिस्तर लगे रहते थे.. एक दीदी का और दूसरा बड़ा वाला हम दोनों भाइयों का.. यहाँ मैं अपनी बात करने आया हूँ तो सिर्फ अपनी ही बात करूँगा, भैया दीदी की नहीं, स्वार्थी हूँ इस मायने में.. अगर जाड़े की सुबह हुई हो तो पापा अपने ठंढे हाथों को मेरे गालों से छुवा देते थे, साथ में कोई गीत भी हुआ करती थी, कोई सा भी गीत, ऐसा गीत जिसमें एक चिढाने का तत्व जरूर होता था.. फिर भी अगर नहीं उठा तो रजाई भी धीरे से नीचे सरक जाती थी.. धीरे से उठ कर या फिर नखरे के साथ उठ कर मैं उनसे चिपक कर उनके ओढ़े हुए चादर में सिमटने की कोशिश करने लगता जहाँ वह या तो चाय पीते रहते थे या फिर चाय पीने के बाद अखबारों में खबरें ढूंढते फिरते थे.. वहीं अगर गर्मियों का मौसम हुआ तो कई दफे उनके हाथों से टपकते हुए पानी के माथे पर बूँद-बूँद गिरने से.. कई दफे ऐसे भी सुबह जगा हूँ जग तेज आंधी-तूफ़ान में पापा या मम्मी खिड़कियों को बंद करने की मसक्कत कर रहे हों..

आज भी हर रोज सुबह होती है.. आज भी रोज सुबह उठता हूँ.. अगर पटना में हुआ तो भी अब कोई उठाता नहीं है, ये कह कर की इस लड़के को नींद बहुत कम आती है, सो जितने दिन घर पर है उतने दिन इसे जी भर कर सोने दिया जाए.. नौ-साढ़े नौ बजे पापा उठाते हैं और मुंह हाथ धोए बिना ही जबरदस्ती अपने साथ नाश्ते पर बिठा देते हैं.. फिलहाल तो चेन्नई में हूँ और जिंदगी का अधिक समय इसी शहर में गुजर रहा है.. सुबह साढ़े आठ बजे मोबाईल का अलार्म बजता है.. हाथ यंत्रवत आँख मून्दे में ही टच स्क्रीन को सही जगह छूकर अलार्म को बंद कर देता है.. फिर साढ़े नौ अथवा दस बजे तक खुद ही उठता हूँ.. फिर दफ्तर जाने की मारा-मारी, और अगर साप्ताहांत हुआ तो मोबाईल पर ही मेल चेक करने के बाद फिर सो जाना..

जिंदगी के तीस बसंत गुजर चुके हैं.. अगर आज भी घर पर होता तो सुबह उठ कर आशीर्वाद लेने से पहले ही पापा सीने से लगा लेते और मम्मी माथे को चूम लेती.. जो किसी आशीर्वाद से कहीं बेहतर रहता आया है मेरे लिए.. एक आत्मिक संतोष जैसा कुछ.. जन्मदिन की सुबह तो यक़ीनन ऐसी ही होती.. आज फिर पापा के सीने से लगने की इच्छा हो रही है.. सोचता हूँ की मम्मी के अपने माथे को चूमने के एवज में शायद मैं उनके गाल को चूम लेता.. मैं उन्हें अक्सर छेड़ने के लिए उनका गाल चूम लेता हूँ और वो मुस्कुरा कर एक थप्पड़ सर पर लगा देती है, शायद तब भी ऐसा ही करती.. पापा को सीने से लगाने के बाद मैं उन्हें नहीं छोड़ता हूँ तब वह अक्सर पेट में गुदगुदी लगाने लगते हैं, तब भी शायद ऐसा ही करते..

फिलहाल तो मोबाईल को बंद करके बैठा हूँ.. किसी से कोई बात करने की इच्छा नहीं है.. एक अवसाद में घिरा हुआ हूँ.. अवसाद क्यों? कुछ पता नहीं.. जीवन के लक्ष्य का कुछ पता नहीं.. जीने की वजहों को इतने साल बीतने के बाद भी नहीं जान पाया हूँ.. हर महीने तनख्वाह की रकम मिलना, उसमें से कुछ बचाना एक अनिश्चित भविष्य के लिए, कुछ खर्च करना निश्चित वर्तमान के लिए, और बीते भूत के लिए कभी खुश होना और कभी खुद को कोसना, यूँ ही पूरा महीना निकलते जाना, साल-दर-साल.. क्या ऐसे ही मानव जीवन को लोग अमूल्य मानते हैं? मुझे तो नहीं लगता.. कहने को तो मैं भी अच्छा ख़ासा दर्शन कह सकता हूँ, मगर उससे क्या? क्या मेरी यह दिनचर्या बदल जायेगी? नहीं!! जिंदगी वहीं की वहीं रहेगी, रेत के एक-एक दाने की तरह फिसलती हुई.. साल-दर-साल यूँ ही गुजरते हुए कई सालों के बाद एक दिन मैं भी गुजर जाऊँगा.. बदलेगा कुछ नहीं.. जिंदगी भर यूँ ही माया के पीछे भागता ही रहूँगा..

बहुत बेचैन हुआ जा रहा हूँ, मन बहुत विचलित है.. फिलहाल जहाँ हूँ वहाँ होने की इच्छा नहीं है.. कल दिन भर शायद भागता फिरूँगा, ये भागना किसी और से नहीं, खुद से ही है.. क्यों? कुछ पता नहीं.. अभी जो पता है वह यह की I am missing my Mummy-Papa.......मगर साथ ही एक और बात सच है की मैं फिलहाल अकेले रहना चाहता हूँ.. किसी का भी साथ नहीं चाहता हूँ, मम्मी-पापा का भी नहीं.....किसी ऐसे जगह पर घंटों चुपचाप बैठना चाहता हूँ जहाँ घोर सन्नाटा हो.. इतना सन्नाटा की खामोशी कि वह आवाज कानों के परदे को फाड डाले......